लहरों की तरह उठती , गिरती
ये भाब्नाएं भी , खूब खेल दिखाती हैं ।
सब चीज़ बिकाऊ हो गयी हे ,
अनमोल अरमानों का मोल करता हे इंसान ,
कभी कोई सिक्कों में तोलता हे
कभी कोई रहम भीख में देता हे ,
तमाशा क्यों बनता हे 'ये कवि' अपने उन जज्बातों का ,
खरीददार होंगे कई , पर कदरदान कोई भी नहीं ।
झूठी थी वो कहानी ,
जिसे तू हक्कीकत समजता हे ।
तेरी साँसों में ये बेचैनी कैसी ?
आवाज़ में ये दर्द कैसा ?
aur har नज़्म में ये आंसूं कैसे ?
सब अपने लिए , बस !!!
तू तो औरों की अब सोचता भी नहीं , भूल सा गया हे ,
जिनके लिए कभी तेरी कलम रोटी थी ,
न वो कलम हे न ही एक कतरा सयाही ।
जो तू बोएगा , वही पायेगा ,
आंसूं से नाम पड़ी उस बिज को ,और मत सींच ,
फेंक आ कंही दूर , किसी बंज़र पड़ी ज़मीन पर ,
जो ताप -ताप कर ,पत्थर सी हो जाये ,
तू चाहे अगर भी , वो पिघल ना पाए ।
कोशिश कुछ और ही थी सायद , पर में लिख कुछ और गया ,
माफ़ करना मेरे यार 'सायर'
कंही कोई गुस्ताकी , ना हो गयी हो ।