Saturday, February 20, 2010

लहरों की तरह उठती , गिरती

ये भाब्नाएं भी , खूब खेल दिखाती हैं ।

सब चीज़ बिकाऊ हो गयी हे ,

अनमोल अरमानों का मोल करता हे इंसान ,

कभी कोई सिक्कों में तोलता हे

कभी कोई रहम भीख में देता हे ,

तमाशा क्यों बनता हे 'ये कवि' अपने उन जज्बातों का ,

खरीददार होंगे कई , पर कदरदान कोई भी नहीं ।

झूठी थी वो कहानी ,

जिसे तू हक्कीकत समजता हे ।

तेरी साँसों में ये बेचैनी कैसी ?

आवाज़ में ये दर्द कैसा ?

aur har नज़्म में ये आंसूं कैसे ?

सब अपने लिए , बस !!!

तू तो औरों की अब सोचता भी नहीं , भूल सा गया हे ,

जिनके लिए कभी तेरी कलम रोटी थी ,

न वो कलम हे न ही एक कतरा सयाही ।

जो तू बोएगा , वही पायेगा ,

आंसूं से नाम पड़ी उस बिज को ,और मत सींच ,

फेंक आ कंही दूर , किसी बंज़र पड़ी ज़मीन पर ,

जो ताप -ताप कर ,पत्थर सी हो जाये ,

तू चाहे अगर भी , वो पिघल ना पाए ।

कोशिश कुछ और ही थी सायद , पर में लिख कुछ और गया ,

माफ़ करना मेरे यार 'सायर'

कंही कोई गुस्ताकी , ना हो गयी हो ।

Tuesday, February 9, 2010

मुझसे कुछ तू सिख भला
क्यों यैसे तू घबराये
आंधी तूफान आये कई, डाटा रहा
रेगिस्थान की तपतपाती लू या बर्फीले तूफान
सब मुझसे टकराए
बरसों बीत गए यूँही
देख,खड़ा हूँ आज भी सीना ताने ।


मुझसे कुछ तू सिख भला
क्यों संभल ना पाए
चट्टानों से टकरा उन भले
वादियों से गुजरती हुई अपनी राह धुन्दू
या फिर ऊँची टेढ़ी पहाड़ों से गिरुं
बरसों बीत गए यूँही ,
पर बहती हूँ , आज भी वही पुराणी सुर और ताल में


मुझसे कुछ तू सिख भला
धीर क्यों ना धरे
चाहत हे कितने दिनों की
उसके दीदार को
पर बैठा हूँ में चकोर , कब से और आज भी
वही इक आस लगाये ।

मुझसे कुछ तू सिख भला
क्यों मन मैला करे
काला कौवा में सही
पर धर्म कर्म न छोदुं
सांज सवेरे देर अंधेर सबके आँगन चमका उन .


मुझसे कुछ तू सिख भला
क्यों ऐसे तू संकुचाये
कितने आये कितने गए
सब मुझमे ही समाये फिर तू रौंदे क्यों मुझे
और क्या धुन्दन को तू आये
माया रूपी इस संसार में
क्या लागे तेरा और क्या मेरा....

चमन से एक फूल माँगा तो उसने कांटे दिए

आसमान से पानी माँगा तो उसने अंगारे बरसाए

धरती से एक मुट्ठी भर मिटटी मांगी तो उसने कंकड़ दिए

अब क्या मांगू में तुझसे ,दर लगता हे

कंही ,मेरी खुसी के लिए

तू अपनी होंठों की मुस्कराहट ऩा दे दे ।

Sunday, February 7, 2010

गुजरा करते थे जब तेरी गलियों से
खिलखिलाती हंसी का एक सलाम मिलता था
रूठी ऐसे तेरो किस्मत मुझसे
अब सलाम तो दूर तेरे ज़ख़्मी दिल से एक बद्द्दुआ भी नहीं मिलती

Saturday, February 6, 2010

वोह हरा पत्ता जो हवा के संग खेलता था

उसे किसके बेरुखी ने बहुत जलन दी ,मुरझा गया वोह

पर वो तो मेरी जिंदगी की हरियाली हे

ताज़े हवा के स्पर्श से फिर मस्ती में झूमेगा

वो खिलखिलाता था जो ,सूरज की रोशनी के के साथ

उसे किसीने अपने घने बालों के साये में धक् दिया

वो तो मेरा सूरजमुखी हे

नयी सुबह की नयी रौशनी में

अंगडाई लेकर फिर हसेगा

वो लो जो रोशन करता था चेहरा मेरा

किसके आँचल की खुसबू ने जरा बैचैन कर दिया ,पर बुझा नहीं वो

वो तो दीपक हे मेरा

खुद को जला कर औरों को उजाला देता हे ।